नहीं है। यह विचार इस विचार से कहीं अच्छा है कि ईश्वर
ने सृष्टि को पाँच मिनट में रच डाला और फिर वह सोने
लगा और अब तक सोता ही है। इसके अतिरिक्त इससे ईश्वर
नित्य स्रष्टा जान पड़ता है। लहर चढ़ती उतरती रहती है
और वह उस नित्य क्रिया का प्रेरक है। जैसे विश्व अनादि
और अनंत है, वैसे ही ईश्वर भी है। हमारी समझ में ऐसा
होना आवश्यक है; क्योंकि यदि हम कहते हैं कि कभी सृष्टि
नहीं थी, चाहे वह सूक्ष्म रूप में हो वा स्थूल रूप में, तो
इससे यह मतलब निकलता है कि तब ईश्वर ही नहीं था;
क्योंकि ईश्वर को तो हस विश्व का साक्षी मानते हैं। जब
विश्व नहीं था, तब वह भी नहीं था। एक बात दूसरी से
निकलती है। कारण के भाव से कार्य्य की सिद्धि होती है। यदि
कार्य्य नहीं तो कारण कहाँ। अतः यह निगमन निकलता है
कि यदि विश्व नित्य है तो ईश्वर भी नित्य है।
आत्म भी नित्य अवश्य है। क्यों? हम पहली बात यह देखते हैं कि आत्मा भौतिक नहीं है। न यह स्थूल शरीर है और न सूक्ष्म शरीर है जिसे हम मन और बुद्धि कहते हैं। न यह भौतिक शरीर है और न यह वह है जिसे ईसाई लोग आध्यात्मिक शरीर कहते हैं। स्थूल शरीर और आध्यात्मिक शरीर दोनों विकारवान् हैं। स्थूल शरीर में तो क्षण प्रति क्षण विकार होता रहता है और आध्यात्मिक शरीर बहुत दिन तक बना रहता है; और जब वह छूट जाता है तब आत्मा मुक्त हो जाता है। जब मनुष्य मुक्त हो