जाता है, तब आध्यात्मिक शरीर छिन्न भिन्न हो जाता है।
स्थूल शरीर, जब जब मनुष्य मरता है तब तब, छिन्न भिन्न होता
रहता है। आत्मा किसी और पदार्थ से नहीं बना है, अतः वह
अविनाशी है। नाश से हमारा क्या प्रयोजन है? नाश कहते
हैं उन पदार्थों के छिन्न भिन्न हो जाने को जिनसे वह वस्तु
बनी हो। यदि शीशा टूट जाय और उसके पदार्थ छिन्न भिन्न
हो जायँ तो शीशे का नाश हो जायगा। अंशों के इसी छिन्न
भिन्न होने को नाश कहते हैं। इससे यह मतलब निकलता है
कि जो अंशो वा टुकड़ों से नहीं बना है, उसका नाश नहीं है।
आत्मा किसी पदार्थ से नहीं बना है। यह अविभाज्य एकता
है। इसी युक्ति से यह अनादि भी अवश्य है। अतः आत्मा
अनादि और अनंत है।
अब तीन पदार्थ हुए। एक प्रकृति है जो अनंत तो है, पर विकारवाली है। सारी प्रकृति अनादि और अनंत है, पर उसमें नित्य विकार होता रहता है। यह उसी नदी की भाँति है जो समुद्र में सहस्रों वर्ष से बहती जा रही है। वह है तो वही नदी, पर उसमें क्षण क्षण पर विकार होता रहता है, जल के अंश अपने स्थान को निरंतर बदलते रहते हैं। इसके अतिरिक्त ईश्वर निर्विकार और नियंता है। और आत्मा भी ईश्वर की भाँति नित्य और निर्विकार है, पर नियंता के अधीन है। एक स्वामी है, दूसरा दास है और तीसरी प्रकृति है।
ईश्वर विश्व की उत्पत्ति, स्थिति और लय का कारण है।