पृष्ठ:विवेकानंद ग्रंथावली.djvu/२४०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
[ २३० ]


ईश्वर को देखता है, तब वह उसे दृश्यवत् दिखाई पड़ता है और वह अपने को द्रष्टा जानता है। वे नितांत पृथक् हैं। यह मनुष्य और ईश्वर का द्वैतभाव है। धर्म का प्रायः यही पहला रूप है।

अब वह विचार आता है जिसको मैं अभी प्रकट कर चुका हूँ। मनुष्य यह जानने लगता है कि ईश्वर विश्व का कारण है और विश्व कार्य्य है। ईश्वर ही विश्व और आत्मा हो गया है; पर वह एक अंश मात्र है और ईश्वर पूर्ण है। हम अति तुच्छ हैं, केवल अग्नि की चिनगारी के समान हैं और सारा विश्व ईश्वर की अभिव्यक्ति मात्र है। यह दूसरी श्रेणी है। संस्कृत में इसी को विशिष्टाद्वैत कहते हैं। जैसे यह शरीर है और शरीर आत्मा को आवृत्त किए हुए है और आत्मा शरीर में व्याप्त है, अतः यह सारा विश्व और आत्मा मानों ईश्वर का शरीर है। जब स्थूल अभिव्यक्ति होती है, तब भी विश्व ईश्वर का शरीर ही रहता है। जैसे मनुष्य की आत्मा मनुष्य के शरीर और मन की आत्मा है, वैसे ही ईश्वर हमारी आत्माओं की भी आत्मा है। आप सब लोगों ने यह बातें सारे धर्मों में सुनी होंगी कि ईश्वर हमारी आत्माओं की भी आत्मा है। इस वाक्य का यही अर्थ है। वही उनमें रहता है, उनको प्रेरित करता है और उनका शासन करता है। पहली श्रेणी द्वैतवाद में हममें से प्रत्येक पृथक् पृथक् है और ईश्वर तथा प्रकृति से सका के लिये अलग है। दूसरे में हम अलग तो हैं, पर ईश्वर से पृथक् नहीं है। हम सब छोटे छोटे अणु के समान हैं जो