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पृष्ठ:विवेकानंद ग्रंथावली.djvu/२४१

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समष्टि में रहते हैं और वह समष्टि ईश्वर है। हम पृथक् तो हैं, पर ईश्वर के साथ एकीभूत हैं। हम सब उसमें हैं। हम सब उसी के अंश हैं। अतः हम एक ही हैं। फिर भी मनुष्य मनुष्य में, मनुष्य और ईश्वर में विभिन्नता और पार्थक्य है भी, पर नहीं भी है।

फिर एक और सूक्ष्म प्रश्न उपस्थित होता है कि क्या अनंत के विभाग हो सकते हैं। अनंत के भाग का अर्थ क्या है? यदि आप तर्क करें तो आपको यह असंभव प्रतीत होगा। अनंत के भाग हो नहीं सकते, वह सदा अनंत ही रहेगा। यदि उसका भाग हो सकेगा तो प्रत्येक भाग भी अनंत ही होगा। दो अनंत हो नहीं सकते। मान लो दो हों भी, तो एक दूसरे को ससीम करेंगे और दोनों ससीम हो जायँगे। अनंतता एक ही रहेगी और वह अविभक्त रहेगी। इस प्रकार यह परिणाम निकलता है कि अनंतता एक ही है,अनेक नहीं; और एक अनंत आत्मा की छाया करोड़ों दर्पणों में पड़ रही है और भिन्न भिन्न आत्माओं के रूप में भासमान हो रही है । वही अनंत आत्मा इस विश्व का आधारभूत है जिसे ईश्वर कहते हैं। वही अनंत आत्मा मनुष्य के मन का अधारभूत है; और उसकी ओट में वह है जिसे मनुष्य की आत्मा कहते हैं ।

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