दिखाई पड़ता है, वहाँ आपको आधुनिक विज्ञान की न्यूनता जान पड़ेगी, उनकी नहीं। हम सब प्रकृति के शब्द का प्रयोग करते हैं। प्राचीन सांख्यदर्शन में दो नाम आए हैं, एक प्रकृति, दूसरा अव्यक्त। इसी से परमाणु, अणु, गुण, मन, बुद्धि, चित्त आदि का प्रादुर्भाव होता है। यह आश्चर्य जान पड़ता है कि भारतवर्ष के दार्शनिकों और अध्यात्म विद्या के पंडितों ने कई युग पहले इस बात को कहा है कि मन प्राकृतिक वा भौतिक पदार्थ है। आजकल के अनात्मवादी लोग जो सिद्ध करने की चेष्टा कर रहे हैं, वह क्या है? यही न कि मन भौतिक है। और ऐसे ही बुद्धि और चित्त भी भौतिक हैं; सब अव्यक्त से प्रादु- भूत होते हैं। सांख्य अव्यक्त को प्रकृति की सत्, रज और तम की साम्यावस्था कहता है। निकृष्ट गुण का नाम तम है जिससे संकोच वा आकर्षण होता है। तम से रज कुछ ऊँचा है। इससे विकास वा प्रसारण होता है; और सर्वोत्कृष्ट गुण सत् है जो इन दोनों को साम्य भाव में रखता है। जब तक आकुंचन प्रसारण की यह दोनों शक्तियाँ अर्थात् तम और रज सत्व गुण के वश में रहती हैं, संसार में न तो सृष्टि ही होती है और न किसी प्रकार की गति होती है। ज्यों ही साम्य भाव जाता रहता है और वैषम्य आता है, इन दोनों गुणों में एक प्रधानता हो जाती है; गति का आरंभ होता है और सृष्टि आरंभ हो जाती है। यह क्रिया यथा कल्प बारी बारी होती रहती है। अर्थात् वैषम्य दशा में गुणों का मिश्रण होता है और विकाश
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