आरंभ होता है। साथ ही साथ सब साम्य दशा की ओर प्रवृत्त होते जाते हैं और अंत को सबका लय हो जाता है। फिर वैषम्य दशा आती है और सृष्टि प्रारंभ होती है; और इस प्रकार सृष्टि समुद्र की लहर के समान आविर्भूत और तिरोभूत होती रहती है। सृष्टि को समुद्र की लहर समझ लीजिए जो बारी बारी उठती और बैठती रहती है। कितने ही दार्शनिकों का मत है कि यह दशा समस्त विश्व के लिये एक साथ होती है, अर्थात् एक ही समय सबका लय हो जाता है। दूसरे कहते हैं कि एक समय केवल एक ही जगत का लय होता है, अन्य का लय और समय में होता रहता है। ऐसे करोड़ों जगत हैं जिनका नित्य लय और सृष्टि होती रहती है। मैं तो दूसरे मत का माननेवाला हूँ कि समस्त विश्व का एक साथ लय नहीं होता, भिन्न भिन्न जगतों का लय भिन्न भिन्न समय में होता रहता है। पर सिद्धांत यही है कि सब दृश्य-जगत् में क्रमशः उत्पत्ति और लय की क्रिया होती रहती है। इस प्रकार साम्या- वस्था को प्राप्त होने को प्रलय कहते हैं। विश्व की उत्पत्ति और प्रलय की उपमा हिंदू धर्म-शास्त्रकारों ने ईश्वर के श्वास-प्रश्वास से दी है, मानों विश्व ईश्वर की साँस की भाँति निकलता पैठता रहता है। जब प्रलय हो जाता है तो विश्व क्या होता है? वह सूक्ष्म दशा में, जिसे सांख्य दर्शन में कारण वा प्रकृति कहते हैं, रहता है। यह देशकाल और परिणाम से मुक्त नहीं होता। सब बने रहते हैं, केवल सूक्ष्माति सूक्ष्म रूप को प्राप्त हो जाते
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