पृष्ठ:विवेकानंद ग्रंथावली.djvu/२५५

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कि वह सर्वव्यापी और सर्वांतरयामी है। मैं यहाँ आपको यह बतला देना उचित समझता हूँ कि हमारे कितने ही दार्शनिक ईश्वर को वैसा नहीं मानते हैं जैसा आप लोग मानते हैं। सांख्यदर्शन के प्रवर्तक कपिलाचार्य्य ईश्वर की सत्ता ही को नहीं मानते। उनका मत है कि पुरुष विशेष वा व्यक्तिगत ईश्वर का भाव नितांत निष्प्रयोजन है। प्रकृति स्वयं सारी सृष्टि रच सकती है। जिसे कर्तृत्वधर्म कहते हैं, उसकी उन्होंने जड़ उखाड़ दी और कह दिया कि बच्चों की सी इन बातों से कोई लाभ नहीं है। पर वह एक अद्भुत प्रकार के ईश्वर को मानते हैं। उनका कथन है कि हम सब मोक्ष के लिये प्रयास कर रहे हैं और जब हम मुक्त हो जाते हैं, तब हम प्रकृति में मानो मिल जाते हैं और कल्पादि में प्रकट होते और शासन करते हैं। हम सर्वव्यापी और सर्वांतरयामी के रूप में प्रकट होते हैं। उस अर्थ में हम देवता कहलाते हैं। आप और मैं और साधारण प्राणी देवता हो सकते हैं। उनका कथन है कि ऐसे देवता क्षणिक हुआ करते हैं; पर ऐसा शाश्वत ईश्वर कोई हो ही नहीं सकता जो इस विश्व का नित्य और सर्वशक्तिमान् शासक हो। यदि कोई ऐसा ईश्वर हो भी तो यह कठिनाई आ पड़ेगी कि वह या तो बद्ध होगा या मुक्त। जो मुक्त है, वह सृष्टि ही न करेगा, उसको कोई आवश्यकता ही नहीं है। जो बद्ध है वह भी सृष्टि नहीं कर सकता; उसमें शक्ति ही नहीं है। दोनों दशाओं में कोई सर्वांतरयामी और सर्वशक्तिमान् शासक नहीं हो सकता।