है। जैसे हमारे मन है, वैसे विश्व को भी मन है; जैसे व्यक्ति में है वैसे ही समष्टि में। विश्व का भी एक पिंड है। उस पिंड के परे मन है, उसके परे अहंकार, उसके परे महत्तत्व। और यह सब प्रकृति में है। प्रकृति में अभिव्यक्तियाँ हैं, बाहर नहीं।
हमारा जो स्थूल शरीर है, वह हमारे पिता से है। वैसे ही मन भी है। हमारा नितांत पैतृक शरीर पिता से है और हमारे मन और अहंकार भी पिता के ही अंश हैं। हम अपने पिता से पाए हुए अंश में विश्व के मन से कुछ अंश लेकर बढ़ा देते हैं। महत्तत्व का अघट भांडार है; उसी से हम जितना हो सकता है, अपने काम भर के लिये ले लेते हैं। विश्व में आध्या- त्मिक शक्ति का अघट भांडार है। उसी से हम नित्य लिया करते हैं; पर बीज हमारे पिता के शरीर से हममें आया है।
हमारा सिद्धांत यह है कि पैतृकदाय के साथ पुनर्जन्म भी मिला है। पुनर्जन्म के नियमानुसार जन्म लेनेवाले जीवात्मा को अपने पिता माता से अपने शरीर की सामग्री मिलती है।
युरोप के कुछ दार्शनिकों का विचार है कि यह विश्व इस कारण है कि “मैं हूँ”। यदि मैं न होता तो विश्व कहाँ था? इसी बात को कभी कभी इस प्रकार भी कहते हैं कि यदि संसार के सब मनुष्य मर जायँ तो मनुष्य फिर न रहेंगे। कोई ऐसा प्राणी न रह जायगा जो उनको समझ-बूझ सके। फिर सब सृष्टि का लोप हो जायगा। पर युरोप के इन दार्शनिकों को इसके रहस्य का ज्ञान नहीं है, वे सिद्धांत को भले ही जाना