पृष्ठ:विवेकानंद ग्रंथावली.djvu/२८

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दीजिए। इन सब बातों को अपने ही तक रखिए, उन्हें अपने वश में कीजिए। भला सोचिए तो सही कि विश्व की एकता और आत्मा की एकता से बढ़कर धर्म में सिखलाने की और कौन सी बात है। सहस्रों वर्ष मनुष्य इसी लक्ष्य की ओर जाने के लिये सारा श्रम करते आए हैं और अब तक करते जा रहे हैं। अब आपकी बारी है। आप जानते हैं कि सत्य क्या है। क्योंकि इसी की शिक्षा चारों ओर हुई है। भला आज का वह वैज्ञानिक पुरुष कहाँ है जो इस एकता की सत्यता को स्वीकार करने से भय करता है? ऐसा कौन है जो ‘अनेक लोक हैं’ यह कहने का साहस करता है? यह सब पक्षपात है। एक ही आत्मा और एक ही लोक है। वही एक आत्मा और एक लोक हमें अनेक भासित होता है। यह अनेकत्व स्वप्नवत् है। आप जब स्वप्न देखते हैं तो एक स्वप्न जाता है और आप दूसरा देखते हैं। आप अपने स्वप्न में पड़े नहीं रहते। एक स्वप्न जाता है, दूसरा आता है। दृश्य पर दृश्य आप के सामने प्रकट होते रहते हैं। इसी प्रकार इस लोक में सैकड़ा नब्बे दुःख और दस सुख की बात है। संभव है कि थोड़ी ही देर में आपको सैकड़ा नब्बे सुख और दस दुःख देख पड़ें और हम इसे स्वर्ग कहें। पर ऋषियों के लिये एक ऐसा समय आ जाता है जब कि यह सब जाता रहता है और यह लोक उन्हें ईश्वर-स्वरूप देखाई पड़ता है― उनकी आत्मा ब्रह्मरूप हो जाती है। अतः यह बात ठीक नहीं है कि अनेक लोक हैं। यह मिथ्या है कि अनेक आत्माएँ हैं। यह