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पृष्ठ:विवेकानंद ग्रंथावली.djvu/२८३

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और अधिक स्पष्ट होती है। यही अवस्था सत् की भी समझ लीजिए। वह सत् जो हमें संकुचित दिखाई पड़ता है, उसी वास्तविक सत् की झलक मात्र है, वही आत्मा का स्वरूप है। यही आनंद की दशा है जिसे हम प्रेम वा आकर्षण कहते हैं। यह उसी आत्मा के आनंद की झलक मात्र है। अभिव्यक्ति में संकोच होता है, पर आत्मा का अव्यक्त रूप अनंत है; उस आनंद की सीमा नहीं है। पर प्रेम ससीम है। मैं आपसे आज प्रेम करता हूँ, कल आप से बैर करूँगा। आज मेरा प्रेम अधिक है तो कल कम होगा; क्योंकि वह एक कला मात्र की अभिव्यक्ति है।

पहली बात जिसके विषय में मैं कपिल से विरोध करता हूँ, उसका ईश्वर-संबंधी विचार है। जैसे प्रकृति के विकार महत् से लेकर शरीर तक के लिये एक पुरुष की आवश्यकता है जो उसका शासन करता है, उसी प्रकार विश्वनिदान वा प्रकृति और विश्वगत महत् अहंकार, मन, तन्मात्रा भूतों के लिये भी एक शालक की आवश्यकता है। भला विश्वनिदान की बातें विना एक विश्वव्यापी पुरुष के कैसे ठीक हो सकती हैं। उसके लिये भी तो वैसे ही शासक की आवश्यकता है। यदि आप कहें कि विश्व के लिये पुरुष की आवश्यकता नहीं है, तो मैं कहूँगा कि इस शरीर के लिये भी पुरुष की आवश्यकता नहीं। आप नहीं मानते तो मैं भी नहीं मानता। यदि यह ठीक है कि इस शरीर के काम चलाने के लिये पुरुष की आवश्यकता है जो असंग है, तब तो उसी युक्ति से विश्व का काम चलाने के