करता है और घटाकाश, पटाकाश रूप से लक्षित होता है। वह सत्य ज्ञान वह नहीं है जिसे हम जानते हैं; न वह ज्ञान है, न बुद्धि, न सहज बुद्धि है। जब वही भ्रमग्रस्त वा क्षुब्ध हो जाता है, तब उसी को हम ज्ञान कहते हैं। और नीचे आने पर वही बुद्धि हो जाता है; और अधिक विकार प्राप्त होने पर उसी को सहज बुद्धि कहते हैं। वह ज्ञान विज्ञान कहलाता है। वह न मन है, न बुद्धि, न सहज बुद्धि। उसका द्योतक शब्द केवल विज्ञान है। वह अनंत और असंग है। वही आनंद जब आच्छन्न होता है तब प्रेम कहलाता है। वही सूक्ष्म शरीर के लिये और विचार के लिये आकर्षण हो जाता है। यह केवल उसी आनंद का विकृत रूप है। सत्, चित् और आनंद आत्मा के गुण नहीं हैं, उसके स्वरूप हैं। उनमें और आत्मा में कोई अंतर नहीं है। तीनों एक हैं। हमें एक ही तीन रूपों में भासमान हो रहा है। वे सारे सापेक्ष ज्ञान से बहुत परे हैं। वही सत्य ज्ञान जब मस्तिष्क से छनकर बाहर निकलता है, तब उसे मन, बुद्धि आदि कहते हैं। व्यक्तिता में भेद उस आवरण के कारण पड़ता है जिससे होकर वह बाहर निकलता है। आत्मा की दृष्टि से मनुष्य में और कीट पतं आदि में कोई अंतर नहीं है। अंतर केवल यही है कि कीट पतंगादि के मस्तिष्क उतने प्रोन्नत नहीं होते और उनके द्वारा व्यक्तिता को हम सहज ज्ञान कहते हैं जो बहुत धुंधुला होता है। मनुष्य के मस्तिष्क बहुत प्रोन्नत वा सूक्ष्म होते हैं। इसी कारण अभि- व्यक्ति भी बहुत स्पष्ट होती है। अधिक उच्च मनुष्यों में वह
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