पृष्ठ:विवेकानंद ग्रंथावली.djvu/२८५

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कारण मन हैं। वेदांत के अनुसार मन ही के कारण, उसके रूपों ही के कारण ‘क’ और ‘ख’ परिमित जान पड़ते हैं और बाह्य तथा आभ्यंतर जगत् दिखाई देते हैं। पर ‘क’ और ‘ख’ दोनों मन से परे हैं। उनमें अंतर है ही नहीं, वे एक ही हैं। हम उनमें किसी गुण का आरोप नहीं कर सकते। कारण यह है कि गुण मन से उत्पन्न होते हैं। जो निर्गुण है वह अनेक नहीं हो सकता; एक हो सकता है। ‘क’ निर्गुण है। उसमें मन के गुण आ जाते हैं। इसी प्रकार ‘ख’ भी निर्गुण है और उसमें भी मन ही के कारण, गुण है; अतः ‘क’ और ‘ख’ एक ही हैं। सारा विश्व एक ही है। विश्व में केवल एक ही आत्मा है, एक ही सत्ता है। वही एक सत्ता जब देश, काल और परिणाम से होकर निकलती है तब उसी को बुद्धि, तन्मात्रा, स्थूल और सूक्ष्म भूत, सूक्ष्म और स्थूल शरीरादि कहते हैं। इस विश्व में जो है वह वही एक है और वही अनेक भासमान हो रहा है। जब उसकी एक झलक देश-काल और परिणाम के जाल से बाहर देख पड़ती है, तब वह रूप ग्रहण कर लेती है। जाल को हटा दो, सब एक ही हैं। इसी लिये अद्वैत दर्शन में सारा विश्व आत्मा में एकीभूत है, जिसे ब्रह्म कहते हैं। वही आत्मा जब विश्व की ओट में दिखाई पड़ता है, तब ईश्वर कहलाता है। वही आत्मा जब इस सूक्ष्म विश्व शरीर की ओट में रहता है, तब जीवात्मा कहलाता है। वही आत्मा मनुष्य में जीवात्मा के रूप में है। एक ही पुरुष है जिसे वेदांत ब्रह्म कहता है। ईश्वर और मनुष्य सब ज्ञानदृष्ट्या उसी में