पृष्ठ:विवेकानंद ग्रंथावली.djvu/२८६

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एकीभूत हैं। आप ही विश्व हैं, आप ही विश्व में भर रहे हैं। आप सब हाथों से कर्म करते हैं, सब मुँँह से खाते हैं, सब नाकों से साँस लेते हैं, सब मन से विचार करते हैं। सारा विश्व आप ही हैं; विश्व आपका शरीर है। आप ही रूप और अरूप विश्व हैं। आप ही विश्व की आत्मा और विश्व के शरीर हैं। आप ही ईश्वर हैं; देवता, मनुष्य, पशु, पक्षी, कीट, पतंग, जंगम, स्थावर, जड़, चेतन सब आप ही हैं; सबकी अभिव्यक्तियाँ आप ही हैं। जो कुछ हैं, आप ही हैं। आप अनंत हैं। अनंत का खंड नहीं। मेरे तो अंश ही नहीं है; यदि अंश भी होंगे तो अनंत होंगे। यदि अंश होंगे भी तो वे पूर्ण के समान ही होंगे; पर यह असंभव है। अतः यह विचार कि आप अंश हैं, आप अमुक अमुकी हैं, ठीक नहीं है; स्वप्नवत् है। इसे जानो और मुक्त हो जाओ। यही अद्वैत का तत्व है। ‘न मैं शरीर हूँ, न इंद्रिय हूँ, न मन हूँ। मैं सच्चिदानंद हूँ, वही हूँ’। यही सच्चा ज्ञान है। इसके अतिरिक्त सारा ज्ञान, सारी बुद्धि और जो कुछ है, सब अज्ञान है। मुझे ज्ञान कहाँ से होगा? मैं तो स्वयं ज्ञान हूँ। मेरे लिये जीवन कहाँ से आवेगा? मैं तो स्वयं जीवन हूँ। मुझे निश्चय है कि मैं हूँ, क्योंकि मैं ही जीवन हूँ। संसार में कोई ऐसी सत्ता नहीं जो मुझ में, मेरे द्वारा वा मेरे रूप में न हो। मैं ही भूतों के द्वारा व्यक्त होता हूँ, पर मैं मुक्त हूँ। मुक्ति कौन ढूँढ़ता है? कोई नहीं। यदि आप अपने को बद्ध मानते हैं, तो बद्ध हैं, आप ही

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