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पृष्ठ:विवेकानंद ग्रंथावली.djvu/२८७

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अपने को बाँधते हैं। यदि आप अपने को मुक्त जानें तो आप उसी क्षण मुक्त हैं। यही ज्ञान है, यही मोक्ष है। सारी प्रकृति का लक्ष मोक्ष ही है।



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(३१) धर्म का लक्ष एकता वा अभेद है।
(न्यूयार्क १८९६)

हमारा विश्व, इंद्रिय, ज्ञान और बुद्धि का विश्व दोनों ओर से अप्रमेय और अज्ञेय से सीमाबद्ध है। इसी के भीतर अन्वेषण है, इसी में जिज्ञासा है, इसी में तत्व है और इसी से वह प्रकाश उत्पन्न होता है जो संसार में धर्म के नाम से प्रख्यात है। तत्वतः धर्म इंद्रियातीत है, इंद्रियों का विषय नहीं है। यह तर्क से भी परे है, बुद्धि का विषय नहीं है। यह आभास, अवभास, अज्ञात और अज्ञेय में निमग्न होकर अज्ञेय को अतिज्ञेय करता है; कारण यह है कि यह 'ज्ञान' में आ नहीं सकता। यह खोज मनुष्य के अंतःकरण में, और मैं जानता हूँ कि मनुष्यों के आदि में, उत्पन्न हुई। संसार के इतिहास के किसी काल में कोई मानव तर्क और बुद्धि ऐसी थी ही नहीं जिसमें यह उलझन और अलौकिक जिज्ञासा न उत्पन्न हुई हो। अपने इस छोटे विश्व में, इस मानव अंतःकरण में हम देखते हैं कि एक विचार उत्पन्न होता है। यह कहाँ से उत्पन्न होता है, हमें पता नहीं; और जब यह लुप्त होता है तब कहाँ जाता है, हमें इसका भी