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पृष्ठ:विवेकानंद ग्रंथावली.djvu/२९०

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है और भौतिक आध्यात्मिक हो जाता है। यह ज्ञान के प्रत्येक विभाग में होता रहता है।

इस प्रकार मनुष्य को बाह्य के अध्ययन के लिये विवश होना पड़ा है। जीवन मरुभूमि हो जायगा और मनुष्य का जीवन निःसार हो जायगा, यदि हम बाह्य को न जान सकें। यह कहना अच्छा है कि वर्तमान दशा पर हमें संतुष्ट रहना चाहिए; बैल और कुत्ते जंतु वा प्राणी हैं; वैसे ही और सब जंतु भी हैं; बस इतने ही से वे जंतु हैं। इसी प्रकार यदि मनुष्य वर्तमान दशा से संतुष्ट रहें और इसके बाहर की सब जिज्ञासा त्याग दें तो फिर मनुष्य पशु हो जायँ। यह धर्म ही है अर्थात् परोक्ष की जिज्ञासा, जिससे मनुष्य और हैं और पशु और हैं। यह ठीक कहा गया है कि केवल मनुष्य एक ऐसा जंतु है जो ऊपर देखता है, अन्य जंतु सामने देखनेवाले हैं। ऊपर देखना, ऊपर की जिज्ञासा करना और आप्तता ढूँढ़ना ही मोक्ष वा निर्वाण कहलाता है; और ज्यों ही मनुष्य ऊर्ध्वगामी होने लगता है, त्यों ही वह उस सत्य के आदर्श की ओर उठने लगता है जिसे निर्वाण कहते हैं। इसमें इसकी आवश्यकता नहीं कि आपके पास पुष्कल धन हो वा आपके पास उत्तम परिच्छद हों वा रहने के घर अच्छे हों, पर आवश्यकता है मस्तिष्क में आध्यात्मिक विचारों के होने की। इसी से मनुष्य उन्नति कर सकता है; यही सारी भौतिक और आध्यात्मिक उन्नतियों की जड़ है जिसमें छिपी हुई वह संचा- लक शक्ति है, वह उत्साह है, जो मनुष्य को आगे ढकेलता है।