धर्म न तो रोटी में रहता है न घर में रहता है। बार बार यह आपत्ति आपके सुनने में आई होगी कि धर्म से लाभ क्या है? क्या इससे दरिदों की दरिद्रता जाली रहेगी? मान लीजिए कि वह न हुआ, तो क्या इतने से धर्म की असत्यता सिद्ध हो जायगी? मान लीजिए कि आप ज्योतिष के एक प्रश्न का स्पष्टीकरण कर रहे हैं और एक बच्चा आकर पूछे कि क्या इससे जलेबी मिलेगी? आप उत्तर देंगे कि नहीं, जलेबी न मिलेगी। बच्चा कहेगा कि तो फिर यह व्यर्थ ही है। बच्चे सब बातों को अपनी ही परिस्थिति से देखते हैं। उनके लिये तो वही अच्छा है जिससे जलेबी मिले। ऐसे ही संसार के बाल-धी भी हैं। हमें उच्च पदार्थों का निर्णय नीच परिस्थिति से नहीं करना चाहिए। प्रत्येक पदार्थ का निराकरण उसी की परिस्थिति से करना ठीक होता है। अनंत का निर्णय अनंतता की परिस्थिति से होना चाहिए। धर्म मनुष्य के जीवन के अंग अंग में व्याप्त है, न केवल वर्तमान में अपितु भूत, भविष्य और वर्तमान तीनों काल में। अतः यह नित्य जीवात्मा का नित्य ईश्वर के साथ शाश्वत संबंध है। क्या यह न्यायसंगत है कि हम क्षणभंगुर मानव- जीवन से धर्म के मूल्य का अनुमान करें? कभी नहीं। यह सब निषेधार्थक उपपत्तियाँ हैं।
अब इस बात पर ध्यान दीजिए कि धर्म से कुछ लाभ है। हाँ है तो। इससे मनुष्य को अनंत जीवन का लाभ होता है। इसने मनुष्य को इस दशा पर पहुँचाया है और यही उसे मनुष्य