पृष्ठ:विवेकानंद ग्रंथावली.djvu/२९२

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से देवता बना देगा। यही धर्म कर सकता है। धर्म को मनुष्य- समाज से अलग कर दीजिए, फिर वह रह क्या जायगा? केवल पशुओं का झुंड। इंद्रियों का सुख मनुष्यता का लक्ष नहीं है, ज्ञान ही सारे जीवन का लक्ष है। हम देखते हैं कि मनुष्य को बुद्धि से उतना अधिक सुख मिलता है जितना पशुओं को इंद्रियों से नहीं मिलता। हम देखते हैं कि उसे अध्यात्म से जो आनंद मिलता है, वह बुद्धि से भी नहीं मिलता। अतः अध्यात्मज्ञान सर्वोत्कृष्ट ज्ञान है। इसी ज्ञान से आनंद उत्पन्न होता है। संसार के सारे पदार्थ उसी की छाया हैं। सच्चा ज्ञान और आनंद तीसरे चौथे विकार की अभिव्यक्तियाँ हैं।

एक प्रश्न और शेष रह गया। लक्ष वा अवधि क्या है? इस समय कुछ लोग कहते हैं कि मनुष्य निरंतर आगे को उन्नति करता जा रहा है और कोई आप्तता की अवधि प्राप्त करने को नहीं है। “नित्य आगे बढ़ता जा रहा है, पर कहीं पहुँच नहीं रहा है” यह स्पष्ट अनर्गल बात है। क्या सरल रेखा में कुछ गति है? सरल रेखा निरंतर बढ़ाई जाने पर वृत्त बन जाती है। वह जहाँ से प्रारंभ हुई, वहीं आ जाती है। आप जहाँ से चले, वहीं पहुँचेंगे; और जब आपका प्रारंभ ईश्वर से हुआ है, सब उसी में अंत भी होगा। फिर बचा क्या? आडंबर मात्र। अनंत काल तक आपको कर्माडंबर करना ही पड़ेगा।

फिर भी एक और प्रश्न खड़ा होता है। क्या हमें आगे बढ़ते हुए धर्म की नई नई सत्यता की खोज करना है? उत्तर है―