हम देख चुके हैं कि सांख्य शास्त्र यह मानने पर विवश हुआ
है कि पुरुष विभु वा सर्वगत है। शुद्ध वा केवल होकर पुरुष
परिच्छिन्न नहीं हो सकता। कारण परिच्छेद तो देश-काल वा
परिणाम के कारण होता है। परिच्छिन्न होने के लिये वा परि-
च्छेद के लिये देश में होने की अर्थात् शरीर की आवश्यकता है;
और शरीर प्रकृति ही में है। यदि पुरुष के रूप है तो वह प्रकृति
है; इसी लिये पुरुष अरूप है। और जो अरूप है, उसे यह नहीं कह
सकते कि यहाँ है, वहाँ है, वा कहीं और है। वह अवश्य विभु
वा सर्वव्यापक होगा। इसके आगे सांख्य दर्शन की पहुँच नहीं।
वेदांत दर्शन की इस पर पहली आपत्ति यह है कि यह निश्चय ठीक नहीं है। यदि प्रकृति असंग वा शुद्ध हो और पुरुष भी शुद्ध हों तो दो शुद्ध पदार्थ ठहरेंगे; और वह सारी युक्ति जिससे पुरुष का विभुत्व सिद्ध किया जाता है, प्रकृति के विभुत्व पर प्रयुक्त होगी; और प्रकृति भी देशकाल और परिणाम से परे ठहरेगी; और फिर कोई विकार वा अभिव्यक्ति न हो सकेगी। फिर एक और कठिनाई पड़ेगी कि दो शुद्ध पदार्थ ठह- रेंगे; और यह असंभव है। इस पर वेदांत का समाधान क्या है? वेदांत कहता है कि सांख्यशास्त्र का यह कथन है कि प्रकृति और स्थूल भूतों से महत् तक उसके सब विकार जड़ हैं। उनके परे एक चेतन पदार्थ की आवश्यकता है जो मन को विचार में और प्रकृति को काम करने के लिये प्रेरित करता है। इसमें वह चेतन सत्ता है जो विश्व से परे है; उसी को हम ब्रह्म कहते हैं और