इसी लिये ब्रह्म से जगत भिन्न नहीं है। वही विश्व रूप बन गया
है। वह विश्व का न केवल निमित्त कारण है, अपितु उपादान
कारण भी है। कारण से कार्य्य भिन्न नहीं है, अपितु कारण
का ही रूपांतर कार्य्य है। यह हमें नित्य का अनुभव है।
अतः यही सत्ता प्रकृति का भी कारण है। वेदांत के सारे संप्र-
दायों और मतों को, चाहे द्वैत हो, विशिष्टाद्वैत हो वा अद्वैत
हो, पहले यह मानना पड़ता है कि ब्रह्म विश्व का न केवल
निमित्त कारण, अपितु प्रधान कारण है और जो कुछ है, सब
वही है। वेदांत की दूसरी बात यह है कि सारी आत्माएँ ब्रह्म
के अंश हैं, अप्रमेय अग्नि की चिनगारी हैं। जैसे अग्नि से सहस्रों
चिनगारियाँ निकलती हैं, वैसे ही उस पुराण पुरुष से आत्माएँ
निकली हैं। यहाँ तक तो ठीक है। पर क्या इतने पर संतोष
होता है? अनंत के अंश से अभिप्राय क्या है? अनंत अविभाज्य
है; अनंत के अंश नहीं हो सकते। अनंत का विभाग कहाँ?
इसका अर्थ क्या है कि यह सब उसकी चिनगारियाँ हैं? इसका
समाधान अद्वैतवादी वेदांती इस प्रकार करते हैं कि प्रत्येक
आत्मा ब्रह्म का अंश नहीं, अपितु स्वयं ही ब्रह्म है। फिर
अनेक क्यों हैं? सूर्य्य का प्रतिबिंब सहस्रों घड़ों में पड़ता है। वह
तदनुसार ही प्रत्येक घड़े में दिखाई पड़ता है। पर इतने से क्या
सूर्य्य सहस्रों हो जाता है? वे सब हैं तो प्रतिबिंब ही। सूर्य्य तो
एक ही बना रहता है। यही दशा आत्माओं की है। वे
प्रतिबिंब मात्र हैं, सत् नहीं हैं। ‘मैं’ यह विश्व का ईश्वर,
पृष्ठ:विवेकानंद ग्रंथावली.djvu/२९६
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