पृष्ठ:विवेकानंद ग्रंथावली.djvu/३००

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हैं और आप ही सब हैं। किसे त्यागिएगा, किसे ग्रहण कीजि- एगा। आप ही तो सब कुछ हैं। जब यह ज्ञान आता है तब भ्रम दूर भाग जाता है।

मैं एक बार भारतवर्ष की मरुभूमि में गया। वहाँ महीना भर चलता रहा और मुझै नित्य सामने सुंदर जलाशय आदि का दृश्य दिखाई पड़ता रहा। एक दिन मुझे प्यास लगी। मैं पानी के लिये ऐसे ही एक सरोवर की ओर चला। पर मेरा पास पहुँचना था कि सरोवर का कहीं पता नहीं। उस समय मुझे ध्यान हुआ कि यह तो वही मृग-जल है जिसे मैं जन्म भर पढ़ता रहा हूँ।मैं अपनी मूर्खता का स्मरण कर हँसने लगा कि मैं महीने भर इन जलाशयों के मनोहर दृश्य को देखता रहा और जान न सका कि यह है क्या। दूसरे दिन मैं फिर चला और, फिर वही दृश्य सामने आया; पर साथ यह विचार भी उत्पन्न हुश्रा कि यह मृग-जल है। ज्ञान उत्पन्न हुआ कि वह भ्रम जाता रहा। इसी प्रकार विश्व का भी भ्रम एक न एक दिन छूट ही जायगा। सब लुप्त हो जायगा और जाता रहेगा। यही साक्षा- त्कार है। दर्शन हँसी की बात नहीं है और न कहने सुनने की चीज है। यह साक्षात् करने की चीज है। शरीर न रह जायगा, पृथ्वी और सारे पदार्थ जाते रहेंगे, यह भाव कि मैं शरीर वा मन हूँ, कभी न कभी छूट जायगा, जाता रहेगा; वा यदि कर्म का शेष हो गया, तब तो इनका क्षय हो जायगा और ये फिर आने के नहीं। पर यदि कुछ भी कर्म रह गया―जैसे कुम्हार का चाक