वर्तन बनने पर भी फिरता हो रहता है―तो यह शरीर यात्रा-
भ्रम नष्ट होने पर कुछ काल तक बना रहेगा। फिर तो यह
संसार पुरुष, स्त्री, पशु आदि सब वैसे ही देख पड़ेंगे जैसे मुझे
दूसरे दिन मृग-जल देख पड़ा। पर उनका वह भ्रम बना रहेगा।
साथ ही उसके यह विचार उत्पन्न होगा कि मैं इनके स्वरूप को
जानता हूँ, यह बंधन के कारण फिर न होंगे, न फिर दुःख-मोह-
शोक होगा। जब कोई दुःख आ ही जायगा, तब मन चट कह
देगा कि मैं जानता हूँ कि तुम सब मृगजल के समान हो। जब
मनुष्य इस अवस्था को पहुँच जाता है, तब उसे जीवन्मुक्त कहते
हैं। ज्ञानयोगी का लक्ष्य इस जन्म में जीवन्मुक्ति का लाभ है।
जीवन्मुक्त वही है जो इस संसार में अनासक्त होकर रहे। वह
पद्म पत्र के समान है जो पानी में तो रहता है, पर जिस पर पानी
ठहरता नहीं। वही सब मनुष्यों में, नहीं नहीं सब प्राणियों में श्रेष्ठ
है। उसने ब्रह्म से अपनी एकता जान ली है, उसने साक्षात्
कर लिया है कि मैं और ब्रह्म एक ही हैं। जब आप यह सम-
झते रहेंगे कि आपमें और ईश्वर में अणु मात्र का अंतर है, तभी
आपको भय है। पर जब आपको यह ज्ञान हो जाय कि आप
वही हैं, कोई भेद नहीं, कुछ अंतर नहीं, आप वही हैं, सब वही
हैं, केवल वही, तो फिर भय कहाँ? वहाँ कौन किसे देखे? कौन
किसे पूजे? कौन किससे बोले? कौन किसकी सुने? जहाँ एक
दूसरे को देखता है, एक दूसरे से बोलता है, एक दूसरे की
सुनता है, वहीं लघुता है। जहाँ न कोई किसी को देखता है,
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