बाहर ऐसा प्रश्न करना मूर्खता की बात है। वहाँ वही प्रश्न
असंगत ठहरेगा। देश-काल और परिणाम के भीतर इसका
उत्तर नहीं दिया जा सकता। जो उत्तर इसके परे के विचार से
दिया जा सकता है, वह तभी दिया जा सकता है जब हम उस
दशा को प्राप्त हों। अतः समझदार तो इस प्रश्न को यहीं छोड़
देते हैं। जब कोई रोगग्रस्त होता है, तब वह अपने रोग के
मिटाने की चिंता में लगता है। वह इस पर हठ नहीं करता कि
पहले मुझे यह बतला दो कि मुझे रोग कैसे हुआ।
उसी प्रश्न का एक और रूप है। वह है तो कुछ नीचा, पर अधिक आभ्यासिक और स्पष्ट है। यह भ्रम उत्पन्न किससे हुआ? क्या किसी यथार्थता से भ्रम उत्पन्न हो सकता है? कभी नहीं। हम देखते हैं कि एक भ्रम से दूसरा भ्रम उत्पन्न होता रहता है। भ्रम ही भ्रम को उत्पन्न करता है। जब कार्य्य भ्रम है, तब उसका कारण भी भ्रम होगा। प्रश्न यह होता है कि यह भ्रम उत्पन्न किससे हुआ? उत्तर है, दूसरे भ्रम से। इसी प्रकार अनादि तक चला गया है। अब प्रश्न यह हो सकता है कि क्या इससे अद्वैत मत में दोष नहीं आता? आप दो सत्ताएँ स्वीकार करते हैं, एक अपनी और दूसरी भ्रम की। उत्तर यह है कि भ्रम को सत्ता नहीं कह सकते। आप अपने जीवन में सहस्रों स्वप्न देखते हैं, पर वे आपके जीवन के अंश नहीं बन सकते। स्वप्न आते और जाते हैं; उनकी कोई सत्ता नहीं। भ्रम को सत्ता कहना हेत्वाभास है। इसलिये इस विश्व में केवल