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पृष्ठ:विवेकानंद ग्रंथावली.djvu/३०६

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एक सत्ता है जो नित्य मुक्त, नित्यानंद है और वह वही है जो आप हैं। यही अद्वैत का अंतिम सिद्धांत है।

अब यह प्रश्न हो सकता है कि फिर नाना प्रकार की उपासनाओं से लोभ क्या है? उत्तर है कि वह सब अँधेरे में प्रकाश ढूँढ़ने के समान है; इसी ढूँढ़ने से प्रकाश मिलेगा। हम कह चुके हैं कि आत्मा अपने को नहीं देख सकता। हमारा ज्ञान माया के जाल के भीतर है और उसके बाहर मुक्ति है; जाल के भीतर दासत्व ही बंधन है। उसके बाहर बंधन नहीं। जहाँ तक विश्व से संबंध है, सत्ता बंधन के अधिकार में है, वा बद्ध है; उससे परे मुक्ति है। जब तक आप देश-काल और परिणाम के जाल में पड़े हैं, आपका यह कहना कि हम मुक्त हैं, नितांत अनर्गल है। जब वह अनंत सत्ता माया के जाल में आबद्ध सी हो जाती है, तब वह इच्छा का रूप धारण कर लेती है। इच्छा उसी सत्ता का एक अंश है जो माया के जाल में पड़ी है और ‘स्वतंत्र इच्छा‘ उसकी अचरितार्थ संज्ञा है। इसका कुछ अर्थ नहीं, यह नितांत निरर्थक है। ऐसे ही मुक्ति के संबंध की यह सब बातें हैं। माया में मुक्ति कहाँ।

हममें से प्रत्येक मनुष्य मन, वाणी, कर्म तथा विचार में इस प्रकार बद्ध है जैसे पत्थर का कोई खंड वा यह मेज। मेरा आपसे बातें करना वैसे ही परिणाम के नियम में है जैसे आपका मेरी बातें सुनना। जब तक आप माया के बाहर न जायँ, मुक्ति नहीं है। यही आत्मा की सच्ची मुक्ति है। मनुष्य