पृष्ठ:विवेकानंद ग्रंथावली.djvu/३११

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प्राप्त होगी क्योंकि आप उसे बना सकते हैं। केवल काल का भेद है। किसी को वह तत्क्षण प्राप्त होती है, किसी के लिये पूर्व जन्म के संस्कार बाधक होते हैं। वे शीघ्र नहीं प्राप्त कर सकते। हम सबसे पहले सुख की इच्छा को स्थान देते हैं, चाहे वह इस जन्म के सुख के लिये हो वा अन्य जन्म के। जीवन का मानना ही छोड़िए क्योंकि जीवन मरण का नामांतर है। अपने को जीवित प्राणी समझिए ही मत। जीवन की चिंता किसे है? जीवन भी तो वैसे ही एक भ्रामक व्यामोह है और मृत्यु उसका प्रति रूप है। सुख भी इसी व्यामोह का एक अंश वा भाग है और दुःख दूसरा भाग है। इसी प्रकार और भी है। आपको जीवन-मरण से क्या काम? ये तो कल्पना की बातें हैं। इसी का नाम ऐहिक और आयुष्मिक सुखों का त्याग है।

फिर मन का दमन करना है। इसको इस प्रकार शांत करना चाहिए कि इसमें फिर वृत्तियाँ वा लहरें न उठें और न नाना प्रकार की इच्छाएँ उत्पन्न हों। मन को इस प्रकार वशीभूत करना चाहिए कि बाह्य वा आभ्यंतर कारणों से वह क्षुब्ध न हो। उसे अपनी इच्छा शक्ति से पूर्ण वश में रखना चाहिए। ज्ञानयोगी इसमें शारीरिक वा मानसिक क्रियाओं से सहायता नहीं लेता; उसे केवल दार्शनिक युक्ति, ज्ञान और अपनी इच्छा पर ही विश्वास रहता है। यही एक मात्र साधन है। अब तितिक्षा आती है। तितिक्षा कहते हैं क्षमा को, सहिष्णुता को अर्थात् सब दुःखों को बिना विलाप, बिना परिवेदना और