पृष्ठ:विवेकानंद ग्रंथावली.djvu/३१४

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सिद्धांत है कि प्रकृति है हो नहीं―न भूत में, न भविष्य में, न वर्त- मान में। इन उच्च प्रसंगों में उपयोगिता का प्रश्न हो ही नहीं सकता; उसका करना ही अनुपयुक्त है। और यदि कोई पूछे भी तो बहुत छानबीन करने पर हमें उस उपयोगिता के प्रश्न में मिलेगाही क्या? उनके लिये सुख का वह आदर्श है, जिससे मनुष्य को अधिक सुख की प्राप्ति हो। इन उच्च पदार्थों की अपेक्षा जिनसे उनकी आर्थिक अवस्था का सुधार नहीं होता न उन्हें अधिक सुख की प्राप्ति होती है, बड़ी उपयोगिता का पदार्थ है। सारे विज्ञान केवल इसी एक अभिप्राय से हैं कि मनुष्य को सुख मिले; और जिससे उसे अधिक सुख होता है, उसे वह ग्रहण कर लेता है और जिससे कम सुख की प्राप्ति होती है, उसे त्याग देता है। हम यह देख चुके हैं कि सुख या तो शरीर में होता है, या मन में, या आत्मा में। पशुओं में और अनेक क्षुद्र मनुष्यों में जो लग- भग पशुओं ही से हैं, केवल शरीर ही सुख का आधार है। कोई मनुष्य वैसे सुख से नहीं खा सकता जैसे मर-भुक्खा कुत्ता वा भेड़िया खाता है। अतः कुत्त और भेड़िए का सुख उसके शरीर ही तक है। मनुष्यों में सुख की ऊँची अवस्था हमें देख पड़ती है, अर्थात् मन वा विचार का सुख; और ज्ञानी में सुख की सर्वोच्च दशा देखी जाती है, अर्थात् आध्यात्मिक वा आत्मा का सुख। अतः ज्ञानी के लिये यह आत्मज्ञान अत्यंत उपयोगी है क्योंकि इससे उसे सर्वोत्कृष्ट सुख प्राप्त होता है। इंद्रियों को सुख पहुँचानेवाले भौतिक पदार्थ पूर्ण उपयोगी नहीं हो सकते