सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:विवेकानंद ग्रंथावली.djvu/३२५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
[ ३१२ ]


का शब्द निकलता रहे। दिन रात सोऽहं का शब्द जपा करो। यह कभी न कहो कि मैं हीन या पापी हूँ। आपकी सहायता कौन करेगा? आप संसार के सहायक हैं। विश्व में आपकी कौन सहायता कर सकता है? आपकी सहायता करने को मनुष्य, देवता और दैत्य कहाँ बैठे हैं? आप पर प्रभाव किसका पड़ सकता है? आप विश्व के देवता हैं, आप कहाँ सहायता माँग रहे हैं? कहीं और से कभी सहायता नहीं मिली है। जब मिली तब आपसे ही मिली। अज्ञान की दशा में आपने प्रार्थना की और वह सुनी गई। आपने समझा कि किसी और ने सुना; पर आपने आप ही अपनी प्रार्थना को अज्ञात रूप में सुना। सहायता आप ही के भीतर से मिली और आपने अज्ञानवश समझ लिया कि किसी और ने सहायता की। आपके बाहर कहीं सहायता नहीं, आप विश्व के स्रष्टा हैं। रेशम के कीड़े की भाँति आपने अपने को आवृत्त कर रखा है। आपको बचा कौन सकता है? अपना आवरण काट डालिए और जैसे कुसियारी का कीड़ा कुसियारी को काटकर तितली बनकर बाहर निकल आता है, बाहर आ जाइए, मुक्त हो जाइए। तभी आपको सत्य दिखाई पड़ेगा। सदा आप सोऽहं सोऽहं कहा कीजिए। यह वह शब्द है जिससे आपके अंतःकरण के मल का नाश हो जायगा। यही शब्द है जिससे वह शक्ति जो आपके भीतर प्रसुप्त दशा में पड़ी है, जाग उठेगी। यह शक्ति केवल निरंतर सत्य को सुनने से ही बाहर लाई जा सकती