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पृष्ठ:विवेकानंद ग्रंथावली.djvu/३२७

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अलग कर दे। यह कहना सहज है कि मैं ज्ञानी हूँ, पर ज्ञान होना बहुत कठिन काम है। वेद में कहा है कि मार्ग दुर्गम है, छुरे की धार पर चलना है। निराश मत हो; जागो, उठो और जब तक लक्ष्य पर न पहुँचो, विश्राम मत करो।

अतः ज्ञानी का निदध्यासन क्या है? वह शरीर और मन के प्रत्येक विचार से ऊपर जाना चाहता है; वह इस भाव को निकाल देना चाहता है कि मैं शरीर हूँ। क्योंकि जब मैं यह कहता हूँ कि ‘मैं स्वामी हूँ’ तब शरीर के भाव का उदय हो जाता है। फिर मुझे करना क्या चाहिए? मुझे मन को एक ठोकर देनी चाहिए और कहना चाहिए कि मैं शरीर नहीं हूँ, मैं आत्मा हूँ। राग आवे वा मृत्यु ही घोर रूप धारण कर क्यों न आवे, इसकी चिंता किसे है? मैं शरीर नहीं हूँ। शरीर को साफ सुथरा क्यों करते हो? क्या फिर और भ्रम में पड़ने के लिये? दासत्व में पड़े रहने के लिये? इसे त्यागो। मैं शरीर नहीं हूँ। ज्ञानी का मार्ग यही है। भक्त कहता है कि भगवान् ने मुझे शरीर दिया है; मैं शांति-पूर्वक भवसागर से पार हो जाऊँगा; मुझे इससे प्रेम करना चाहिए जब तक इसे पार न कर जाऊँ। योगी कहता है कि मुझे शरीर का संयम करना चाहिए कि मैं शांति- पूर्वक रहूँ और अंत को मोक्ष प्राप्त करूँ। ज्ञानी कहता है कि मैं रुकूँगा नहीं; अभी इसी क्षण अपने लक्ष्य पर पहुँचूँगा। वह कहता है कि मैं सदी से मुक्त हूँ; कभी बद्ध नहीं हूँ; मैं सदा से इस विश्व का अधीश्वर हूँ। मुझे प्राप्त कौन बनावेगा?