पृष्ठ:विवेकानंद ग्रंथावली.djvu/५२

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जिसे मृत्यु दिखाई पड़ती है, उसका भी जन्म तो दुःख ही दुःख से भरा है। वही मनुष्य इस संसार में रह सकता है जो यह कह सकता हो कि मैं इस जीवन का सुख भोग रहा हूँ, मैं इस जीवन में सुखी हूँ; जो सत्य को देखता है और सब में जिसे सत्य ही दिखाई पड़ता है। क्रमशः मैं आप से यह भी कह सकता हूँ कि वेदों में नरक का भाव कहीं है ही नहीं। नरक पुराणों में आता है और बहुत पीछे। सबसे निकृष्ट दंड वेदों में पृथ्वी पर लौट आना और यहाँ आकर पुनः अवसर प्राप्त करना है। दंड और फल के विचार बहुत ही स्थूल हैं। वे उस मानव या पौरुषेय ईश्वर के ही अनुकूल हो सकते हैं जो वैसे ही एक से प्रसन्न और दूसरे से क्रुद्ध हुआ करता है जैसे हम हुआ करते हैं। दंड और फल तभी माना जा सकता है जब ऐसे ईश्वर की सत्ता स्वीकार की जाय। अपौरुषेयता का यह भाव समझ में आना बहुत ही कठिन है। मनुष्य सदा पुरुष में ही आसक्त रहते हैं। यहाँ तक कि वे लोग भी जो बड़े विचारशील समझे जाते हैं, अपौरुषेयता के भाव का नाम सुनते ही काँप उठते हैं। आप यह बतलाइए कि इन दोनों में कौन उत्कृष्ट विचार है―जीवित ईश्वर वा मृत ईश्वर? अर्थात् वह ईश्वर जिसे न कोई देखता है न जानता है; वा वह ईश्वर जो ज्ञात है?

अपौरुषेय ईश्वर जीवित ईश्वर है, वह सार है। पुरुष- विध वा पौरुषेय और अपुरुष-विध वा अपौरुषेय में अंतर यही