पृष्ठ:विवेकानंद ग्रंथावली.djvu/५३

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है कि पुरुष-विध केवल मनुष्य है और अपौरुषेय का भाव यह है कि वही देवता, मनुष्य, पशु आदि सब है; और वह भी वही है जिसे हम देख नहीं सकते। कारण यह है कि उसमें अपौरुषेयता भी आ जाती है, उसमें विश्व के सारे पदार्थ और उनके अतिरिक्त अनंत पदार्थ आ जाते हैं। जैसे एक ही अग्नि संसार में प्रविष्ट होकर भिन्न भिन्न रूपों में विभक्त हो रहा है और फिर भी अशेष बना रहता है, कुछ इसी प्रकार अपौरुषेय भी है।

हम जीवित ईश्वर की उपासना करना चाहते हैं। मैंने अपने जन्म भर ईश्वर को छोड़ किसी को देखा ही नहीं। कुरसी को देखने में आप पहले ब्रह्म को देखते हैं और फिर उसी के द्वारा आपको कुरसी दिखाई पड़ती है। वह सर्वत्र यही कह रहा है कि मैं ही हूँ। ज्यों ही आप 'अहमस्मि' में इसे समझते हैं, आपको सत्ता का ज्ञान होता है। भला जब हम उसे अपने हृदय में और सबमें नहीं देख सकते तब हम ईश्वर को कहाँ ढूँढ़ने जायँ? “तू ही पुरुष, तू ही स्त्री, तू ही लड़का, तू ही लड़की है; तू ही बुड्डा बनकर लकड़ी टेक रहा है, तू ही युवा बनकर अपने पराक्रम से अकड़ता फिरता है। तू ही अद्भुत जीवित ब्रह्म है, तू ही सारे विश्व में सत्य है।” यह बहुतों को उस परंपरागत ईश्वर का भयानक प्रति- बंदी जान पड़ता है जो कहीं परदे की आड़ में बैठा है, जिसे कोई देखता नहीं। पुजारी लोग हमें विश्वास दिलाते हैं कि