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पृष्ठ:विवेकानंद ग्रंथावली.djvu/५६

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सब अपना अपना मार्ग रक्खें, पर मार्ग ही तो अभीष्ट स्थान नहीं है। स्वर्ग के ईश्वर की पूजा और अन्य सारी बातें बुरी नहीं हैं। वे केवल सत्य के प्राप्त करने की सीढ़ियाँ हैं, सत्य नहीं हैं। सब अच्छी हैं, सब भली हैं और उनमें अनेक अद्भुत विचार भरे हैं। पर वेदांत उनसे पग पग पर यह कहता है कि भाई, जिसकी तुम पूजा करते हो वह तो अज्ञात है; मैं तो तुम्हारे ही रूप में पूजा करता हूँ। जिसकी पूजा तुम अज्ञात समझकर रहे हो, जिसे तुम संसार में इधर उधर ढूँढ़ते फिरते हो, वह सदा तुम्हारे साथ है। तुम उसीके द्वारा जीते हो। वह विश्व का नित्य साक्षी है। ‘वह जिसे सारे वेद पूजते हैं‘ यही नहीं जो शाश्वत् अहम् (मैं) में सदा रहता है, उसीकी सत्ता से विश्व की सत्ता है। वह विश्व का प्रकाश और जीवन है। यदि तुम में 'अहं' (मैं) न होता तो तुम सूर्य्य को देख ही न सकते; सब तुम्हारे लिये अंधकारमय होता। उसीके प्रकाश से तुम संसार को देखते हो।

एक प्रश्न प्रायः किया जाता है और वह यह है कि इससे बड़ी कठिनाई पड़ेगी। हम सब लोग यही समझने लग जायँगे कि मैं ईश्वर हूँ। जो कुछ मैं करता हूँ, अच्छा है; क्योंकि भला ईश्वर भी कहीं बुराई कर सकता है। पहले हम इस नासमझी से होनेवाले भय को मान लेते हैं; पर यह तो बतलाइए कि क्या आप सिद्ध कर सकते हैं कि इसके न होने पर वह भय न रह जायगा? लोग तो उस ईश्वर को पूजते आ रहे हैं जो