पृष्ठ:विवेकानंद ग्रंथावली.djvu/५५

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आप इसे धीरे धीरे समझेंगे। आपके भी जीता जागता ईश्वर है। फिर भी आप गिरजे बनाते, मंदिर बनाते और नाना भाँति की मिथ्या कल्पनाओं में विश्वास रखते हैं। वही अकेला ईश्वर पूजा करने के योग्य है जो मनुष्य की आत्मा है, मनुष्य के शरीर में है। इसमें संदेह नहीं कि सब प्राणी मंदिर हैं, पर मनुष्य सबसे बड़ा मंदिर है। वह मंदिरों का भी मंदिर है। यदि हम उसमें पूजा नहीं कर सकते तो कोई मंदिर किसी काम का नहीं हो सकता। जिस समय हम मनुष्य के शरीर- रूपी मंदिर में बैठे हुए ईश्वर को साक्षात् करते हैं, जब हम प्रत्येक मनुष्य के सामने भक्तिभाव से खड़े होते हैं और ईश्वर को उसमें देखते हैं, उस समय हमारे बंधन छूट जाते हैं। जो हमारे बंधन हैं, सब टूटकर गिर पड़ते हैं; वे रह ही नहीं जाते और हम मुक्त हो जाते हैं।

यही सारी उपासनानों से अधिक काम की उपासना है। इसे सिद्धांत बनाने सौर विचार गढ़ने से कोई काम नहीं है। फिर भी बहुतों को इससे डर लगता है। उनका कथन है कि यह ठीक नहीं है। वे अपने उन्हीं पुराने आदर्शों पर जिन्हें बाप-दादा से सुनते आए हैं, सिद्धांत पर सिद्धांत गढ़ते जाते हैं कि स्वर्ग में कहीं कोई ईश्वर है। उसने किसी से यह कहा था कि मैं ईश्वर हूँ। उस समय से केवल सिद्धांत ही सिद्धांत बच रहा है। उनके अनुसार यही विचार उपयुक्त हैं और हमारे विचार मिथ्या हैं। वेदांत का कथन है कि इसमें संदेह नहीं,