सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:विवेकानंद ग्रंथावली.djvu/५९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
[ ५३ ]

बना दिया है। वेदांत कहता है कि अनंतता हमारा सत्य स्वरूप है; यह मिटेगा नहीं, सदा बना रहेगा। पर हम अपने कर्म से अपने को परिमित बना रहे हैं, मानों वह हमारे गले की रस्सी है और हमें इस परिमितत्व की ओर खींच लाई है। उस रस्सी को तोड़ डालिए और बंधन-रहित हो जाइए। उसे अपने पैरों तले रौंद डालिए। मनुष्य के स्वभाव में नियम कुछ नहीं है, भवि- तव्यता कुछ नहीं है, भाग्य कुछ नहीं है। भला अनंतता में भी कहीं नियम होता है? मुक्ति ही इसका स्वभाव और सत्व है। मुक्त हो लो; फिर जितना मन में आवे, व्यक्ति-निर्देश रखो। तब आप उस नट के समान खेल करेंगे जो मैदान में आता है और भिखमंगे का खाँग भरता है। उसे उस भीख माँगनेवाले से मिलाइए जो गली गली भीख माँगता फिरता है। दोनों के रूप एक हैं, बोली भी संभव है एक हो, पर दोनों में भेद कितना बड़ा है। एक को उस रूप में आनंद आता है और दूसरा उसी रूप में दुःख भोगता है। और इस अंतर का कारण क्या है? यही कि एक मुक्त है और दूसरा बद्ध। नट जानता है कि उसका यह रूप सच्चा नहीं है; उसने उसे स्वाँग के लिये भरा है; और भिखारी यह समझता है कि उसका वास्तविक रूप वही है और वह चाहे वा न चाहे, उसे वह रूप रखना ही पड़ेगा। यही नियम कहलाता है। जब तक हमें अपने स्वरूप का बोध नहीं है, हम भिक्षुक बने हैं; प्रकृति की ठोकरों पर ठोकर खाते हैं और बात बात में उसके दास बने रहते हैं। हम संसार में