आत्मा के संगीत का एक अंश पृथ्वीं बन गया। नियम कहो वा
विश्व कहो, पर यह हमारा और सदा हमारा ही रहेगा। संक्षे-
पतः वेदांत का आदर्श है―मनुष्य को जानना कि सचमुच वह
है क्या। यही उसका संदेश है कि यदि आप अपने भाई मनुष्य
की पूजा नहीं कर सकते जो व्यक्त ईश्वर है, तो आप कैसे उस
ईश्वर को पूज सकेंगे जो अव्यक्त है?
क्या आपको स्मरण नहीं है कि इंजील में क्या कहा है? “यदि आप अपने पड़ोसी से प्रेम नहीं कर सकते जिसे आपने देखा है, तो आप ईश्वर से कैसे प्रेम कर सकते हैं जिसे आपने देखा ही नहीं।” यदि आप ईश्वर को मनुष्य के रूप में नहीं देख सकते तो आप बादलों में वा जड़ भौतिक पदार्थों की बनी हुई मूर्तियों में अथवा अपने मानसिक कल्पित ध्यान में ईश्वर को कैसे देख सकते हैं? मैं आपको उसी दिन से धर्मात्मा कहना आरंभ करूँगा जब आप प्रत्येक स्त्री पुरुष में ईश्वर को देखने लग जायँगे; और तभी इस वाक्य का अर्थ आपकी समझ में आ जायगा कि “यदि कोई तुम्हारे बाएँ गाल पर थप्पड़ मारे तो दाहिना भी उसके आगे कर दो।” जो कुछ तुम्हारे आगे आता है, वही नित्य आनंदघन ईश्वर है जो नाना रूपा में पिता, माता इष्टमित्र आदि के रूप में हमें दिखाई पड़ रहा है। वे सब हमारे ही आत्मा हैं जो हमारे साथ खेल रहे हैं।
जैसे जैसे हमारे मानवी संबंधी अर्थात् माता-पिता आदि