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पृष्ठ:विवेकानंद ग्रंथावली.djvu/६४

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देवरूप होते जाते हैं, वैसे वैसे हमारा ईश्वर के साथ संबंध घनिष्ट होता जाता है और हम उसे मातापिता, इष्टमित्रादि की दृष्टि से देख सकते हैं। ईश्वर को माता कहना उसे पिता कहने से कहीं श्रेष्ठ है; उसे मित्र कहना बहुत अच्छा है; पर उसे अपना प्रियतम कहना सर्वोत्तम है। सबसे उत्तम भाव तो वह है कि प्रेमी और प्रियतम में अभेद देख पड़े। आपको एक पुरानी फारसी की कहानी का स्मरण होगा कि प्रेमी अपने प्रियतम के द्वार पर आया और किवाड़ खोलने के लिये खट- खटाने लगा। भीतर से शब्द आया, कौन है? उसने उत्तर दिया कि ‘मैं हूँ’। किवाड़ न खुला। वह फिर खट- खटाने लगा। फिर भीतर से शब्द आया कि कौन है। उसने फिर कहा, मैं हूँ। पर फिर भी किवाड़ न खुला। वह तीसरी बार आया और किवाड़ खटखटाने लगा। भीतर से फिर वही शब्द आया कि कौन है? अब की बार उसने कहा ‘प्रीतम’ मैं तो तू ही हूँ’ और किवाड़ खुला। यही दशा हमारे ईश्वर के साथ संबंध की है। वह सब में है और सब वही है। सब स्त्री- पुरुष साक्षात् ईश्वर हैं, जीते-जागते ईश्वर। यह कौन कहता है कि ईश्वर अज्ञात है? कौन कहता है कि उसे ढूँढ़ना है? हमने तो ईश्वर को सदा से पा लिया है। हम उसमें सदा से रहते आ रहे हैं। चारों ओर वह सदा से ज्ञात है, सदा से उसी की पूजा हो रही है।

अब एक और बात है।वह यह कि पूजा की नाना विधियाँ