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विवेकानंद ग्रंथावली।
ज्ञान योग।
दूसरा खंड।
(१७) कर्म वेदांत।
(लंदन १० नवंबर १८९६)

मुझसे लोगों ने वेदांत दर्शन के कर्मकांड के संबंध में कुछ कहने के लिये कहा है। मैं कह चुका हूँ कि सिद्धांत तो बहुत ही अच्छा है, पर वह व्यवहार में कैसे लाया जाय? यदि व्यव- हार में नहीं लाया जा सकता, तो कोई सिद्धांत क्यों न हो, दो कौड़ी का है, वह केवल मनोविनोदार्थ है। वेदांत यदि धर्म है तो वह अवश्य व्यवहार योग्य होना चाहिए। उसका ऐसा होना आवश्यक है कि वह जीवन के प्रत्येक अंश में काम आ सके। केवल इतना ही नहीं, इससे धर्म और लोक में जो कल्पित (मिथ्या) भेद है, वह मिट जाना चाहिए। कारण यह कि वेदांत तो अद्वैत धर्म है; उसकी शिक्षा सार्वभौम एकता की है। धर्म का भाव तो यह होना चाहिए कि वह जीवन मात्र में व्याप्त हो, वह हमारे सारे विचारों में भर जाय और अधिक