पृष्ठ:विवेकानंद ग्रंथावली.djvu/७५

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का ज्ञान उनके खरूप से कराया जाना चाहिए―काम में लाने से हम और उत्कृष्ट विचार पर पहुँचते हैं, ऐसे विचार पर जिसका समझ में आना बहुत कठिन है। वह इससे अधिक संक्षेप से नहीं कहा जा सकता है कि अपौरुषेय सत्ता सर्वोच्च सामान्य- वाद भी है और हम भी वही हैं। 'तत्त्वमसि श्वेतकेतौः' वह अपौ- रुषेय वा व्याप्य सत्ता तुम ही हो। वह ईश्वर जिसे आप सदा विश्व भर में ढूँढ़ते फिरते हैं, सदा से आप ही हैं-व्यक्ति- विशेष वा पौरुषेय की दृष्टि से नहीं, अपौरुषेय की दृष्टि से। मनुष्य जिसका हमें ज्ञान है अर्थात् व्यक्त, वह पुरुष रूप में है; पर उसकी सत्ता अपौरुषेय है। पौरुषेय के समझने के लिये हमें अपौरुषेय को जानना चाहिए। विशेष के लिये सामान्य का ज्ञान अपेक्षित है। वही अपौरुषेय सत्य है, वही मनुष्य की आत्मा है।

इसके संबंध में अनेक प्रश्न होंगे और ज्यों ज्यों में आगे चलता जाऊँगा, उनके उत्तर देने का प्रयत्न करूँगा। अनेक प्रकार की कठिनाइयाँ पड़ेंगी; पर सबसे पहले हमें वेदांत के पक्ष को सम- झने की आवश्यकता है। व्यक्त रूप में तो हमारी सत्ता अलग दिखाई पड़ती है, पर वास्तविक रूप में हमारी सत्ता एक ही है; और जितना हम अपने को उस एक से कम अलग समझें, उतना ही अच्छा है। जितना ही अधिक हम अपने को उससे अलग समझते हैं, उतना ही अधिक हम दुःखी होते हैं। वेदांत के इसी सिद्धांत से हम आचार के मूल पर पहुँचते हैं और यह कहने का साहस कर सकते हैं कि हमें अन्यत्र से आचार