पृष्ठ:विवेकानंद ग्रंथावली.djvu/७४

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पड़ता है। उसके लिये अचल रह ही नहीं जाता है और उसे भी यह कहने का अधिकार है कि सब सद् है।

इस दर्शन का निचोड़ क्या है? यही कि पुरुष-विशेष ईश्वर का भाव पर्याप्त नहीं है। हमें उससे कुछ और आगे जाना है और वह अपौरुषेयता का भाव है। यही तर्क की एक युक्ति है जिसका हमें आश्रय लेना चाहिए। इससे ईश्वर की पौरुषेयता नष्ट नहीं होती, और न उसे प्रमाणित करने के लिये प्रमाण ही दिया जाता है; अपितु हमें पौरुषेय के समझने के लिये अपौरु- षेय को स्वीकार करना पड़ता है। कारण यह कि अपौरुषेय का भाव पौरुषेय की अपेक्षा अधिक उच्च सामान्यवाद है। अपौरु- षेय ही अनंत हो सकता है, पौरुषेय तो सांत है। इस प्रकार हम पौरुषेय के पोषक हैं, उसके नाशक नहीं। प्रायः यह शंका होती है कि यदि हम अपौरुषेयता को स्वीकार करते हैं तो पौरुषेयता नष्ट हो जायगी; यदि हम अपौरुषेय मनुष्य को मानें तो व्यक्तता जाती रहेगी। पर वेदांत का विचार व्यक्तता नष्ट करने का नहीं अपितु उसकी रक्षा करने का है। हम व्यक्त को दूसरे प्रकार से सिद्ध ही नहीं कर सकते। उसकी जब सिद्धि होगी तब विश्व के संबंध से ही होगी; अर्थात् यह सिद्ध करने से कि व्यक्त वास्तव में विश्व ही है। यदि हम व्यक्त को इस सारे विश्व से अलग समझें तो वह क्षण भर भी नहीं रह सकता। ऐसा पदार्थ कभी रहा ही नहीं।

इसके अतिरिक्त अब दूसरी रीति को―अर्थात् इसे कि सब