पृष्ठ:विवेकानंद ग्रंथावली.djvu/८६

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प्राचीन वेदांतियों में था। वेदांती कहते थे कि जितने प्राणी हैं, उतनी ही अलग अलग आत्माएँ हैं। बौद्धों का कथन था कि यह नितांत अनर्गल बात है; ऐसी आत्मा है ही नहीं। मैं आपसे पहले ही कह चुका हूँ कि वह विवाद कुछ वैसा ही था जैसा आजकल युरोप में द्रव्य और गुण के संबंध में है। एक कहता है, गुणों के अतिरिक्त एक पदार्थ द्रव्य नामक है जो गुणों का आधार है। दूसरा कहता है कि द्रव्य कोई पदार्थ है ही नहीं। वह निराधार रह सकता है। जीवात्मा के संबंध में जो सबसे प्राचीन सिद्धांत है, उसका आधार अपने इस निर्धारण पर है कि “मैं हूँ”; कि आज ‘मैं’ वही हूँ जो कल था और ‘मैं’ जो आज हूँ, वही कल रहूँगा। शरीर में परिवर्तन भले ही होते रहते हों, पर मैं यही समझता रहता हूँ कि मैं वही “मैं” बना हूँ। यही उन लोगों के परिमित और फिर भी पूर्ण और पृथक् आत्मा मानने का प्रधान हेतु था।

इसके विरुद्ध प्राचीन बौद्धों का कथन था कि आत्मा है ही नहीं; उसे मानने की आवश्यकता ही नहीं है। वे कहते थे कि जो हम जानते हैं वा जान सकते हैं, केवल वही विकार है। किसी निर्विकार पदार्थ का मानना ही ढकोसला है; और यदि मान लिया जाय कि कोई ऐसा निर्विकार पदार्थ है भी, तो न हम उसे कभी जान सकते हैं और न इस संसार में जान ही पावेंगे। आजकल युरोप में वही विवाद चल रहा है जिसमें एक ओर तो धार्मिक और भाववादी हैं और दूसरी ओर