सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:विवेकानंद ग्रंथावली.djvu/९०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।

[८४]

जो विकारवान हो गया है। यहाँ एक आत्मा ही है जो विकार रहित है, जिसे हम चित्त और चैतसिक कहते हैं; और यही नहीं, जिसे शरीर कहते हैं, यदि उसे अन्य दृष्टि देखा जाय तो वह भी आत्मा ही है। हमें यह चिंतन करने का अभ्यास पड़ गया है कि हमारे शरीर है, हमारे आत्मा है, इत्यादि; पर यदि सच पूछो तो केवल एक आत्मा ही है, दूसरा कुछ है ही नहीं।

जब हम अपने शरीर-रूप में चिंतन करते हैं तब हम शरीर हैं। यह कहना व्यर्थ है कि हम कुछ और हैं। जब हम अपने को आत्मारूप समझते हैं, तब शरीर रह नहीं जाता और न शरीर के धर्म ही रह जाते हैं। किसी को बिना शरीर का ज्ञान नष्ट हुए आत्मा का ज्ञान हो ही नहीं सकता; किसी को द्रव्य का बोध तब तक हो ही नहीं सकता जब तक कि गुण का ज्ञान जाता न रहे।

अद्वैत के रज्जु और सर्प के पुराने दृष्टांत से इस विषय का अधिक स्पष्टीकरण होता है। जब रज्जु में सर्प का ज्ञान होता है, तब रज्जु नहीं रह जाती; और जब उसमें रज्जु का ज्ञान होता है, तब साँप नहीं रह जाता। फिर तो वह रस्सी ही रह जाती है। एकदेशीय आधार पर अनुमान द्वारा द्वैत वा त्रैत के सिद्धांत की सिद्धि होती है। हम उसे पुस्तकों में पढ़ते हैं और लोगों को कहते हुए सुनते हैं। पर इसका प्रभाव यह होता है कि हमें भ्रम हो जाता है, हममें दोहरा बोध होता है अर्थात् शरीर और आत्मा का; पर यह ज्ञान