वास्तविक नहीं है। ज्ञान एक ही का है; शरीर का हा वा
आत्मा का। इसको सिद्धि के लिये किसी युक्ति की अपेक्षा
नहीं है। आप इसे अपने मन में विचार लीजिए।
तनिक अपने को पृथक् आत्मा-रूप में चिंतन करके तो देखिए। आप इसे कभी न कर सकेंगे। वे लोग जो ऐसा कर सकते हैं, उन्हें यह जान पड़ता होगा कि वे जब अपने को आत्म-रूप चिंतन करते हैं, तब उन्हें शरीर का ज्ञान ही नहीं रह जाता। आपने सुना होगा वा कभी देखा भी होगा कि लोगों के चित्त की दशा अवस्था-विशेष में ध्यान वा उन्माद का नशा खाने से बदल जाती है। उनके उदाहरण से आप समझ सकते हैं कि जब वे आभ्यंतर विचार में मग्न रहते हैं, तब उनको बाह्य ज्ञान रह ही नहीं जाता। इससे प्रकट होता है कि वह एक ही है। वही एक इन नाना रूपों दिखाई पड़ता है। ये नाना रूप कारण कार्य्य के संबंध के उत्पादक हैं। कारण कार्य्य का संबंध विकास का एक भेद है―एक दूसरा होता है; दूसरा तीसरा, इत्यादि होता जाता है। कभी कभी कारण का मानों अभाव हो जाता है और उसके स्थान में कार्य्य रह जाता है। यदि आत्मा शरीरका कारण है तो आत्मा का पहले ही से अभाव हो चुका और शरीर रह गया है। जब शरीर का नाश होगा, तब आत्मा रह जायगी। यह सिद्धांत बौद्धों की युक्ति के अनुकूल पड़ता है जिसे वे द्वैतों के खंडन में दिया करते हैं कि शरीर और आत्मा भिन्न नहीं हैं; और यह सिद्ध करते हैं कि