आवश्यक जान पड़ता है कि आपसे द्वैत की कुछ प्रधान प्रधान
बातें निवेदन कर दूँँ। इस सिद्धांत के अनुसार मनुष्यों के
एक शरीर होता है जिसे स्थूल शरीर कहते हैं; और इसी शरीर
में एक और शरीर होता है जिसे सूक्ष्म शरीर वा लिंग शरीर
कहते हैं। यह शरीर भी प्राकृतिक वा भौतिक होता है। भेद
यही है कि यह सूक्ष्म होता है। इसी सूक्ष्म शरीर में हमारे कर्म,
हमारी क्रिया और संस्कार सब भरे रहते हैं और वही अवस्था
पाकर स्थूल रूप धारण करते हैं। हमारे सब विचार और सब
कर्म जो हम करते हैं, कालांतर में सूक्ष्म रूप धारण कर लेते हैं
और बीज रूप होकर इसी सूक्ष्म शरीर में उपपन्न रूप में रहते
हैं; और समय पाकर वही फिर प्रकट होते और अपने फल
देते हैं। इन फलों के अनुसार ही मनुष्य का जन्म होता है।
इस प्रकार अपने जन्म का वह आप कारण होता है। मनुष्य
किसी और बंधन से नहीं बँधता; वह अपना बंधन आप ही
बनाता है। हमारे मानसिक, वाचिक और कायिक कर्म भले
हों वा बुरे, उस जाल के सूत हैं जिसे हमने अपने ऊपर डाल
रखा है। एक बार हमने किसी में ठोकर लगाई; फिर तो हमें
उसका फल भुगतना आवश्यक है। जीवात्मा के रूप और
आकृति के विषय में बड़ा विवाद है। कुछ लोगों के मत से तो
वह अत्यंत सूक्ष्म है―परमाणु के समान; दूसरों का मत है कि
वह इतना छोटा नहीं है। जीव उसी व्यापक सत्ता का अंश मात्र
है; वह नित्य है। न उसका आदि है और न अंत। वह सदा से
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