पृष्ठ:विवेकानंद ग्रंथावली.djvu/९५

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नहीं कि वह उनकी रक्षा करता है, अपितु उन पर इसलिये विश्वास करता है कि वे सब सत्य की ही अभिव्यंजना में हैं और उनका भी परिणाम वही है जो अद्वैत का है।

उन विचारों की हमें प्रशंसा करनी चाहिए, निंदा नहीं करनी चाहिए। उनकी रक्षा करनी चाहिए, क्योंकि उन्हीं से होकर मनुष्य उन्नति करते हैं। यही कारण है कि द्वैतवाद के सारे सिद्धांतों को वेदांत से निकाल नहीं दिया गया है और न उनका निषेध ही किया गया है। वे ज्यों के त्यो वेदांत में विद्यमान हैं; और जीवात्मा की प्रमेयता और पूर्णता की बात वेदांत में मिलती है।

द्वैतवाद का मत है कि मनुष्य शरीर छोड़ने पर दूसरे लोक में जाता है; तथा इसी प्रकार की अन्य बातें ज्यों की त्यों समूचे वेदांत में भरी हैं। कारण यह है कि उन्नति का ध्यान रखकर अद्वैत सिद्धांत में इन सिद्धांतों का यथा स्थान सन्निवेश है और यह माना गया है कि वे एकदेशी विचार सत्य ही के हैं।

द्वैतवाद की दृष्टि से विश्व द्रव्य से उत्पन्न माना जाता है। सृष्टि किसी की इच्छा से होती है और वह इच्छा इस विश्व से अलग मानी जाती है; अतः इस विचार के आधार पर मनुष्य अपने को शरीर और परिमित तथा पूर्ण आत्मा- युक्त देखता है। ऐसे मनुष्य का विचार अमरत्व और भविष्य के संबंध में उसके आत्मा के विचार के अनुकूल ही हो सकता है। यह बातें वेदांत में ज्यों की त्यों रखी गई हैं; अतः मुझे यह