सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:विवेकानंद ग्रंथावली खंड 3.djvu/१०४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
कर्मयोग
१०७
 

हो अपनी स्वतन्त्रता न खो दे। अनासक्ति द्वारा तुम बाह्य शक्तियों का अवरोध कर अपने आपको उनसे प्रभावित होने से बचाते हो। यह कहना अत्यन्त सरल है, जब तक तुम न चाहो, तुम किसी वस्तु से प्रभावित न होगे; परन्तु उस मनुष्य की क्या सच्ची पहचान है जो किसी वस्तु की प्रतिक्रिया अपने ऊपर नहीं होने देता, बाह्य संसार के व्यवहार से जिसे न सुख होता है न दुख ? पहचान यह है कि उसके मन में कोई परिवर्तन नहीं होता चाहे एक पहाड़ उसके ऊपर टूटकर उसके टुकड़े-टुकड़े कर दे, चाहे उसके सामने सर्वाधिक आह्नादवर्धक दृश्य उपस्थित हों और उसकी सर्व-प्रिय वस्तुएँ उसे मिल जायें। सभी दशाओं में वह अविचलित, समान रहता है।

भारतवर्ष में एक बड़े ज्ञानी थे, व्यास मुनि। ये व्यास वेदान्त सूत्रों के रचयिता माने जाते हैं; वे पवित्र पुरुप थे। उनके पिता ने पूर्णता प्राप्त करने की चेष्टा की थी, परन्तु असफल रहे थे। उनके पितामह भी चेष्टा कर असफल रहे थे। उनके प्रपितामह भी इसी भाँति असफल रहे थे। वे स्वयं भी पूर्ण रूप से सफल नहीं हुये ; परन्तु उनके पुत्र शुक पूर्ण उत्पन्न हुए। व्यास ने शुक को शिक्षा दी और अपना सत्य का ज्ञान देकर उन्हें जनक के यहाँ भेजा। जनक एक बड़े सम्राट् थे और विदेह कहलाते थे विदेह का अर्थ है देह से बाहर । यद्यपि वे सम्राट् थे तथापि वे यह भूल गये थे कि वे शरीर थे; वे सब काल यह समझते थे कि वे आत्मा हैं। शुक उनके पास ज्ञान पाने के लिये भेजे