पृष्ठ:विवेकानंद ग्रंथावली खंड 3.djvu/१०३

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कर्मयोग
 

की आवश्यकता नहीं। किसी मनुष्य के लिये यह सोचना कि वह संसार को उबारने के लिये पैदा हुआ है, महा जड़ता है; केवल मिथ्याभिमान, धर्म के आवरण में क्षुद्र स्वार्थ है। जब तुम्हारे तन और मन को यह अनुभव करने का अभ्यास हो जायगा कि संसार तुम्हारे या अन्य किसी के ऊपर निर्भर नहीं, तव दुःख-मूलक कर्म की कोई प्रतिक्रया न होगी। जब बिना बदले की आशा किये किसी को तुम कुछ दोगे-उससे कृतज्ञता की भी आशा न रक्खोगे-तब उसको अकृतज्ञता का तुम्हारे ऊपर कोई प्रभाव न पड़ेगा, क्योंकि बदले में तुम्हें कुछ मिलने की चाह न थी, यह न सोचा था कि बदले में कुछ पाने का तुम्हें अधि- कार है। वह जिसके योग्य था, वही तुमने उसे दिया ; उसके कर्म ने उसे उपार्जित किया ; अपने कर्म के कारण तुम हेतु-मात्र हुये। कुछ देकर तुम्हें गर्व करने का क्या अधिकार है ? उस दान के तुम उपकरण भर थे; संसार के कर्म का वह उचित फल उसे मिला । तव गर्व करने का क्या कारण हो सकता है ? संसार को तुम जो कुछ देते हो, वह सविशेष महान् नहीं। जब अनासक्ति की भावना तुम्हारे भीतर जाग्रत होगी, तब तुम्हारे लिये न शुभ होगा न अशुभ । स्वार्थ ही शुभ-अशुभ का भेद-भाव करता है। यह समझना अत्यन्त कठिन है परन्तु समय पाकर आप देखेंगे कि संसार की कोई भी वस्तु आपको प्रभावित नहीं कर सकती जव तक कि आप ही उसे वैसा न करने दें। मनुष्य की आत्मा पर कोई हठात् प्रभाव नहीं डाल सकता जब तक वह स्वयं अंध