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पृष्ठ:विवेकानंद ग्रंथावली खंड 3.djvu/१०६

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कर्मयोग
१०८
 

करने के लिये कहा । बालक शुक ने वह ओठों तक भरा पात्र ले लिया और सुन्दर मुखाकृतियों से घिरे नृत्य और संगीत के वीच सभाभवन में चलने लगे। जैसा सम्राट ने कहा था, सात वार वह परिक्रमा कर आये और दूध का एक बूंद भी न छलका । उनका मन ऐसा था कि इच्छा के प्रतिकूल किसी वस्तु का भी उस पर प्रभाव न पड़ सकता था । जब दूध का पात्र ले शुक जनक के पास पहुंचे, तो उन्होंने कहा-"तुम्हें जो तुम्हारे पिता ने सिखाया है और जो तुमने स्वयं सीखा है, मैं उसे केवल दोहरा सकता हूँ ; तुम पूर्ण ज्ञानी हो ; अब घर जाओ।"

इस प्रकार जिसने अपने आपको वश में कर लिया है, वह संसार की अन्य किसी वस्तु से प्रभावित नहीं हो सकता । उसके लिये अब परतंत्रता नहीं । उसका मन अब स्वतंत्र है; ऐसा ही व्यक्ति इस संसार में रहने योग्य है। संसार के विषय में बहुधा मत वाले लोग दिखाई पड़ते हैं। कुछ निराशावादी होते हैं और कहते हैं-"संसार कितना कठोर, कितना दुःख से भरा है; अन्य आशावादी होते हैं और कहते हैं, "यह संसार कितना सुन्दर है, कितना सुखों से पूर्ण !” जिन्होंने अपने आपको वश में नहीं किया, उनके लिये यह संसार या तो दुख से भरा है अथवा अधिक-से-अधिक सुख-दुख का मिश्रण है। जब हम अपने मन के बादशाह हो जायेंगे, तो हमें सारा संसार आशावादी दिखाई देने लगेगा। हम पर शुभ या अशुभ कहकर प्रभाव डालनेवाली कोई वस्तु न रह जायगी ; प्रत्येक बस्तु हमें