पृष्ठ:विवेकानंद ग्रंथावली खंड 3.djvu/१०७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
११०
कर्मयोग
 

उचित स्थान पर दिखाई देगी, संसार-यंत्र में कहीं भी संघर्ष न दिखाई देगा। कुछ मनुष्यों ने पहले उसे नरक कहा परंतु अंत में वे ही अपने मन को वश में कर चुकने पर बोले- "नहीं संसार स्वर्ग है। यदि हम सच्चे कर्मयोगी हैं और इस दशा तक पहुँचने के लिये अभ्यास करना चाहते हैं, तो इम कहीं से भी आरम्भ करें, हम अवश्य अंत में इस आत्म-त्याग के लक्ष्य को पहुँचेंगे । जब माया का 'अहं" चला जायगा, तब यह संसार जो दुख और पाप से भरा दिखाई देता है, पुण्य और आनंद से पूर्ण जान पड़ेगा। उसका वायु मंडल पुण्यमय होगा और प्रत्येक मुख पर शुभ की छाप होगी। कर्मयोग का ऐसा ध्येय है, उसके द्वारा कर्म-लीन जीवन की ऐसी पूर्णता है। हमारे विभिन्न योग परस्पर विरोधी नहीं ; प्रत्येक हमें उसी शुभ के लक्ष्य पर ले जाता है और हमें पूर्ण बनाता है; केवल प्रत्येक कठोर अभ्यास माँगता है। रहस्य इसी अभ्यास में है ; प्रत्येक योग के लिये यह सत्य है। पहले उसके विषय में सुनो और समझो कि वह क्या है ? बहुत-सी बातें जो पहले समझ में न आयेंगी, पीछे बार-बार सोचने और सुनने से आ जायेंगी। सभी वातें एकाएक सुनकर समझ लेना संभव नहीं। आखिर उन सवकी व्याख्या तुम्हारे भीतर ही तो है। वास्तव में कोई किसी से सीखता नहीं, हम सबको अपने आप सीखना होता है । वाह्य गुरु केवल संकेत देता है जिससे अंतगुरु ज्ञान में सचेष्ट होता है। हमारे ही सोचने-समझने से वस्तुएँ अपने वास्तविक रूप में हमारे