दिया है, बड़े ही कर्म्मठ व्यक्ति रहे हैं:--वे विशाल, दैत्याकार, दीर्घ मनस्वितावाले चाहते तो संसार उलट देते। और उन्हें वह मनस्विता लगातार युग-पर-युग काम करने से प्राप्त हुई थी। बुद्ध अथवा ईसा की-सी दानवी मनःशक्ति एक जन्म में काम करने पर नहीं पाई जा सकती; क्योंकि हम जानते हैं, उनके पिता कौन थे। यह नहीं मालूम कि उन्होंने मनुप्य-जाति की भलाई के लिये एक शब्द भी कहा था। जॉसेफ़ की तरह के सैकड़ों बढ़ई हो चुके, और अभी जीवित हैं। बुद्ध के पिता-से सैकड़ों राजा यहाँ हो चुके। यदि केवल पैतृक आदान-प्रदान की बात है, तो क्या कारण है कि उस छोटे-से राजा ने, जिसकी आज्ञा शायद उसके कर्मचारी ही न मानते थे, उस पुत्र को जन्म दिया जिसका आधी दुनिया नाम जपती है! बढ़ई और उसके पुत्र के मध्य उस अंतर का क्या कारण है जिससे दूसरे को लाखों मनुष्य देवता के समान पूजते हैं। पैतृक संबंध ही उसके मूल में नहीं हो सकता। वह महती मनःशक्ति जिसे बुद्ध ने संसार के ऊपर बिछा दिया, जो ईसा के भीतर से समुद्भूत हुई, कहाँ से आई? उस शक्ति का संचय कहाँ से हुआ? वह जन्म-जन्मांतर में धीरे-धीरे बढ़ती रही होगी यहाँ तक कि अंत में एक बुद्ध या एक ईसा के रूप में मनुष्य-जाति के सामने फूट पड़ी। और उसका प्रभाव आज दिन तक लहराता चला आया है।
और यह सब कर्म का परिणाम है। जो बोता है वही काटता