क्या कहता है--"अनवरत कर्म करो परन्तु कर्म में आसक्त न हो।" किसी वस्तु में अपनापन न देखो; मन को स्वतंत्र रक्खो। यहाँ जो दुख-सुख, घृणा-द्वेष तुम देखते हो, वे संसार के लिये अनिवार्य हैं: धन, सुख, निर्धनता ये सब क्षणिक हैं। हमारी वास्तविक प्रकृति से उनका तनिक भी संबन्ध नहीं। हमारी वास्तविक प्रकृति सुख-दुख से परे, सभी गोचर ज्ञान, कल्पना से भी परे है। फिर भी हमें निरंतर कर्म करते रहना चाहिये। दुख आसक्ति से होता है, कर्म से नहीं। जैसे ही हम कर्म में आसक्त होते हैं, वैसे ही हम दुखी होते हैं। परन्तु यदि ऐसी आसक्ति से दूर रहें, तो दुखी भी न हों। दूसरे का सुन्दर चित्र जल जाय तो हमें उतना दुख नहीं होता परन्तु जब अपना चित्र जलता है तो दुख होता है। क्यों? दोनों ही सुन्दर चित्र थे, कदाचित् व एक ही मूल की दो प्रतिच्छवि रहे हों, परन्तु दूसरी बार पहले की अपेक्षा अधिक दुख होता है। इसालय कि दूसरे चित्र को हम अपना कहकर मानते हैं, पहले को नहीं। यह अपने-पराये का भेद ही सब दुखों का मूल है। अधिकार के भाव से स्वार्थ जन्मा और स्वार्थ से दुख उत्पन्न हुआ। स्वार्थ की प्रत्येक क्रिया, स्वार्थ का प्रत्येक विचार हमें किसी वस्तु पर आसक्त करता है और उसी क्षण हम दास बन जाते हैं। चित्त की प्रत्येक लहर जो "मैं, मेरा कहती है, हमारे चारों ओर एक श्रृंखला बनकर हमें बंधन में डाल देती है। जितना ही अधिक हम "मैं, मेराग'
पृष्ठ:विवेकानंद ग्रंथावली खंड 3.djvu/११८
दिखावट