उन्हें शान्ति नहीं लेने देता। जब देखो तब वही कर्त्तव्य । यह दास का जीवन है, जिसका अंत कभी घोड़े का-सा साज पहने सड़क पर गिरकर मर जाने में ही होता है। कर्तव्य जैसा समझा जाता है, ऐसा है। वास्तविक कर्तव्य एक है, हम अनासक्त हो, स्वतंत्र हो कर्म करें, सब कर्म ईश्वर को अर्पित करें । हमारे सव कर्तव्य उसी के हैं। हमारा सौभाग्य है जो उन्हें पालन करने के लिये हमें आज्ञा मिली है। हम तो बस हुक्म बजा लाते हैं ; परंतु अच्छी या बुरी तरह, यह कौन जाने ? यदि हम अच्छी तरह करते हैं तो फलों की हमें आशा नहीं। यदि बुरी तरह करते हैं, तो भी कुछ फ़िकर नहीं । शान्त हो, स्वतंत्र हो और कर्म करो। ऐसी स्वतंत्रता लाभ करना अत्यन्त दुष्कर है। दासता को कर्तव्य का नाम देना कितना सरल है- अस्थि-मांस के शरीर की शरीर पर पतित आसक्ति, कर्तव्य ! मनुष्य संसार में जाकर धन के लिये अथवा अन्य किसी अभीप्स्य वस्तु के लिये परिश्रम करते हैं, उसे पाने के लिये जान लड़ा देते हैं। उनसे पूछिये, वे ऐसा क्यों करते हैं ? ये कहेंगे, "यह हमारा कर्तव्य है।" धन और कुछ अन्न के दानों के लोभ को वे कुछ फूलों से ढका चाहते हैं।
कर्तव्य आखिर है क्या? हमारी एक दैहिक भावना, एक आसक्ति-मात्र; जब एक प्रकार की आसक्ति हड़मूल हो जाती है तब हम उसे कर्तव्य कहने लगते हैं। उदाहरण के लिये जिन देशों में विवाह-प्रथा-प्रचलित नहीं, वहाँ पति-पत्नी के बीच