पृष्ठ:विवेकानंद ग्रंथावली खंड 3.djvu/१२५

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कर्मयोग
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दो। "संसार की जलती भट्टी में जहाँ कर्तव्य की आँच से सब झुलसे जाते हैं, यह अमृत का घुट पियो और सुम्बी हो।" हम सब उसकी इच्छा के अनुमार कार्य कर रहे हैं ; चाहे इनाम मिले, चाहे सजा, हमें कुछ मतलब नहीं । यदि तुम इनाम चाहोगे, तो सज़ा भी भुगतनी पड़ेगी ; सजा से बचने का एक ही उपाय है, इनाम का लालच छोड़ो। दुख से छुटकारा पाने का एक मार्ग है, सुख की आशा त्याग दो, क्योंकि दोनों का अन्योन्याश्रित संबन्ध हैं। एक ओर सुख है, दूसरी ओर दुख ; एक ओर जीवन दूसरी ओर मृत्यु । मृत्यु के परे जाने का एक ही ढंग है, जीवन का मोह छोड़ दो। मरण और जीवन एक ही हैं, घष्टिकोण का अंतर-मात्र पड़ता है। इसलिये विना दुख के सुख का, के जीवन का विचार बच्चों और स्कूल के विद्यार्थियों के लिये अत्यन्त सुन्दर है ; परन्तु विचारशील पुरुष देखता है कि यह शब्दों का पारस्परिक विरोधाभास है; अत: वह उन्हें तज देता है। अपने किसी भी कर्म के लिये कीर्ति की, पुरस्कार की आशा न करो। हम लोग थोड़ी-सी भलाई करते नहीं कि यही इच्छा करने लगते हैं, कोई आकर हमारी पीठ ठोकने लगे। किसी संस्था को कुछ धन दिया, तो हम आशा करने लगते हैं, पत्रों में बड़े-बड़े अक्षरों में हमारा नाम छप जाय । ऐसी इच्छाओं का परिणाम दुख अवश्य होगा। संसार के महत्तम पुरुष अनदेखे अनसुने यहाँ आये और चले गये । बुद्ध और ईसा, जिनके विषय में हम कुछ जानते हैं, उनके सामने द्वितीय श्रेणी के पुरुष ठहरते हैं, जिन विना मरण